चौहान वंश का इतिहास Chauhan History in Hindi: नमस्कार दोस्तों राजस्थान के चौहान वंश (Chauhan Dynasty) का लम्बा इतिहास रहा हैं. राज्य व देश के कई भागों पर उनका आधिपत्य रहा हैं. चौहान हिस्ट्री इस आर्टिकल में हम शाकम्भरी एवं अजमेर के चौहान, पृथ्वीराज चौहान, रणथम्भौर के चौहान जालौर, नाडौल, सिरोही, हाडौती, कोटा के चौहानों का इतिहास यहाँ दिया गया हैं.
चौहान वंश का इतिहास Chauhan History in Hindi
विषय सूची
उत्पत्ति: राजपूतों की 36 शाखाओं में चौहान वंश का अपना गौरवपूर्ण इतिहास हैं. चौहान कुल की उत्पत्ति के सम्बन्ध में एक मत भविष्य पुराण में बताया गया हैं जो यह मानता हैं कि सम्राट अशोक के उत्तराधिकारी पुत्रों द्वारा कन्नौज के ब्राह्मणों को लेकर आबू पर एक यज्ञ सम्पन्न किया, जिसमें उच्चारित वैदिक मंत्रों से चार क्षत्रिय वंशों का जन्म हुआ जिनमें चौहान भी एक थे.
चन्द्रबरदाई जो कि पृथ्वीराज चौहान के अनन्य मित्र और दरबारी कवि थे, इन्होने अपने अमर ग्रन्थ पृथ्वीराजरासो में भी चार राजपूत वंशों चौहान, परमार, प्रतिहार और चालुक्यों की उत्पत्ति आबू पर अशोक के पुत्रों द्वारा कराए यज्ञ से मानते हैं. एक विदेशी इतिहासकार कुक का विचार इससे भिन्न हैं. वे मानते है कि हिन्दू धर्म में शुद्धि के लिए यज्ञ किया जाता हैं, सम्भव है चौहान एक विदेशी थे जो मध्य एशिया से आए थे तथा आबू पर किये गये यज्ञ से उनकी शुद्धि की गईं. कुक के इस मत को स्वीकार नहीं किया जाता हैं. कुछ अन्य का मानना है कि बौद्ध शासकों द्वारा कराए इस यज्ञ में इसकी रक्षा के लिए चार क्षत्रियों को रक्षा की जिम्मेदारी दी होगी, जो आगे चलकर उन्ही के नाम से इस वंश का उद्भव हुआ.
चौहानों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कई ऐसे प्रमाण एवं विद्वानों के मत है जो सिद्ध करते है कि ये रघु के वंशज एवं सूर्यवंशी थे. अचलेश्वर शिलालेख (वि. 1377) चौहान आसराज के विषय में लिखा गया हैं कि “अर्थात पृथ्वीतल पर जिस प्रकार पहले सूर्यवंश में पराक्रमी (राजा) रघु हुआ, उसी प्रकार यहाँ पर (इस वंश) में अपने पराक्रम से प्रसिद्ध कीर्तिवाला आसराज (नामक) राजा हुआ ”
राघर्यथा वंश करोहिवंशे सूर्यस्यशूरोभूतिमंडले——ग्रे |
तथा बभूवत्र पराक्रमेणा स्वानामसिद्ध: प्रभुरामसराजः ||
हमीर महाकाव्य, हमीर महाकाव्य सर्ग, अजमेर के शिलालेख, राजपूताने चौहानों का इतिहास प्रथम भाग- ओझा इन एति हासिक स्रोतों एवं पं. गौरीशंकर ओझा, सी. वी. वैद्य जैसे इतिहासकार अपने इस मत पर कायम रहे कि चौहानों की उत्पत्ति सुर्यवंश से हुई हैं.
चौहान वंश की कुलदेवी Kuldevi of Chauhan dynasty
शाकम्भरी या आशापुरा माता को चौहान वंश की कुलदेवी के रूप में पूजा जाता हैं. जयपुर के साम्भर में इनकी मुख्य पीठ स्थित हैं. इन्हें देवी दुर्गा का रूप माना जाता हैं इनके नाम का शाब्दिक अर्थ शाक से भरण पोषण करने वाली हैं. राजस्थान के जयपुर जिले के साम्भर कस्बे से १८ किमी दूर कुलदेवी का मन्दिर हैं. इन्हें चौहानों के अलावा अन्य हिन्दू जातियां भी पूजती हैं.
चौहान वंश का इतिहास, शाखायें, ठिकाने व कुलदेवी Chauhan Rajput Vansh History in Hindi Kuldevi
यहाँ हम सबसे पहले शाकम्भरी और अजमेर के चौहानों के इतिहास से आरम्भ करते हैं. आपकों जानकारी के लिए बता दे अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय भी अजमेर की चौहान शाखा से ही सम्बन्धित थे उनके इतिहास के बारे में भी हम यहाँ पढने वाले हैं.
शाकम्भरी एव अजमेर के चौहान का इतिहास
चौहानों की उत्पत्ति के संबंध में विभिन्न मत हैं. पृथ्वीराज रासौ में इन्हें अग्निकुंड से उत्पन्न होना बताया हैं, जो ऋषि विशिष्ठ द्वारा आबू पर्वत पर किये गये यज्ञ से उत्पन्न हुए चार राजपूत यौद्धाओं प्रतिहार, परमार, चालुक्य एवं चौहानों में से एक थे. मुह्नौत नैनसी एवं सूर्यमल्ल मिश्रण ने भी इसी मत का समर्थन किया हैं.
पं गौरीशंकर ओझा चौहानों को सूर्यवंशी मानते है तो कर्नल टॉड ने इन्हें विदेशी मध्य एशिया से आया हुआ माना हैं. पृथ्वीराज विजय, हम्मीर महाकाव्य, सुर्जन चरित आदि ग्रंथों तथा चौहान प्रशस्ति पृथ्वीराज तृतीय का बेदला शिलालेख भी चौहानों को सूर्यवंशी बताया गया हैं.
डॉ दशरथ शर्मा बिजोलिया लेख के आधार पर चौहानों को ब्राह्मण वंश से उत्पन्न बताते हैं. 1177 ई का हांसी शिलालेख तथा माउंट आबू के चंद्रवती के चौहानों का अचलेश्वर मंदिर का लेख चौहानों को चंद्रवंशी बताता हैं. विलियम क्रुक ने अग्निकुंड से उत्पत्ति को किसी विदेशी जाति के लोगों को यहाँ अग्निकुंड के समक्ष पवित्र कर हिन्दू जाति में शामिल करना बताया हैं. अभी इस सम्बन्ध में कोई मत प्रतिपादित नहीं हो पाया हैं.
- वासुदेव चौहान: चौहानों का मूल स्थान जांगलदेश में साम्भर के आसपास सपादलक्ष क्षेत्र को माना जाता हैं. इनकी प्रारंभिक राजधानी अछित्रपुर नागौर थी. बिजौलिया शिलालेख के अनुसार सपादलक्ष के चौहान वंश का संस्थापक वासुदेव चौहान नामक व्यक्ति था, जिसने 551 ई के आसपास इस वंश का प्रारम्भ किया. बिजोलिया शिलालेख के अनुसार सांभर झील का निर्माण इसी ने करवाया था. इसी के वंशज अजयपाल ने 7 वीं सदी में सांभर कस्बा बसाया तथा अजयमेरु दुर्ग की स्थापना की.
- विग्रहराज द्वितीय: चौहान वंश के प्रारम्भिक शासकों में सबसे प्रतापी राजा सिंहराज का पुत्र विग्रहराज द्वितीय हुआ, जो लगभग ९५६ ई के आसपास सपादलक्ष का शासक बना. इन्होने अन्हिलपाटन के प्रसिद्ध चालुक्य शासक मूलराज प्रथम को हराकर कर देने को विवश किया तथा भड़ौच में अपनी कुलदेवी आशापुरा माता का मंदिर बनवाया. विग्रहराज के काल का विस्तृत वर्णन 973 ई के हर्षनाथ के अभिलेख से प्राप्त होता हैं.
- अजयराज: चौहान वंश का दूसरा प्रतापी शासक अजयराज हुआ जिसने १११३ ई के लगभग अजमेयरू बसाकर अपने राज्य की राजधानी बनाया. उन्होंने अन्हिलापाटन के चालुक्य शासक मूलराज प्रथम को हराया. उन्होंने श्री अजयदेव नाम से चांदी के सिक्के चलाये. उनकी रानी सोमलेखा ने भी अपने नाम के सिक्के जारी किये.
- अर्णोराज: अजयराज के बाद अर्णोराज ने ११३३ ई के लगभग अजमेर का शासन सम्भाला. अर्णोराज ने तुर्क आक्रमणका रियों को बुरी तरह हराकर अजमेर में आनासागर झील का निर्माण करवाया. चालुक्य शासक कुमारपाल ने आबू के निकट युद्ध में इसे हराया, इस युद्ध का वर्णन प्रबंध चिंतामणी एवं प्रबंधकोष में मिलता हैं. अर्णोराज स्वयं शैव होते हुए भी अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु था. उसने पुष्कर में वराह मंदिर का निर्माण करवाया.
- विग्रहराज चतुर्थ: विग्रहराज चतुर्थ बीसलदेव ११५३ में लगभग अजमेर की गद्दी पर आसीन हुए. इन्होने अपने राज्य की सीमा का अत्यधिक विस्तार किया. उन्होंने गजनी के शासक अमीर खुशरूशाह को हराकर तथा दिल्ली के तोमर शासक को पराजित किया एवं दिल्ली को अपने राज्य में मिलाया.
एक अच्छा यौद्धा एवं सेनानायक होते हुए वे विद्वानों के आश्रयदाता भी थे. उनके दरबार में सोमदेव जैसे प्रकांड कवि थे. जिसने ललित विग्रहराज नाटक की रचना की. विग्रहराज विद्वानों के आश्रयदाता होने के कारण कवि बांधव के नाम से जाने जाते थे. स्वयं विग्रहराज ने हरिकेली नाटक लिखा. इनके अलावा उन्होंने अजमेर में एक संस्कृत पाठशाला बनवाई. इसे मुहम्मद गौरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने अढाई दिन के झोपड़े में परिवर्तित कर दिया था. वर्तमान में टोंक जिले में बीसलपुर कस्बा एवं बीसल सागर बाँध का निर्माण भी बीसलदेव द्वारा करवाया गया. इनके काल को चौहान शासन का स्वर्णयुग कहा जाता हैं.
पृथ्वीराज तृतीय का इतिहास
चौहान वंश के अंतिम प्रतापी सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय का जन्म ११६६ ई में अजमेर के चौहान शासक सोमेश्वर की रानी कर्पूरी देवी की कोख से अन्हिलापाटन में हुआ. अपने पिता का असमय देहावसान हो जाने के कारण मात्र 11 वर्ष की अल्पायु में पृथ्वीराज तृतीय अजमेर की गद्दी के स्वामी बने. उस समय कदम्बदास उनका सुयोग्य प्रधानमन्त्री था. बालक पृथ्वीराज की ओर से उनकी माता कर्पूरी देवी ने बड़ी कुशलता एवं कूटनीति से शासन कार्य सम्भाला. परन्तु बहुत ही कम समय में ही पृथ्वी राज तृतीय ने अपनी योग्यता एवं वीरता से समस्त शासन प्रबंध अपने हाथ में ले लिया. उसके बाद उसने अपने चारो ओर के शत्रुओं का एक एक कर शनै शनै खात्मा किया एवं दलपंगुल की उपाधि धारणा की.
रणथम्भौर के चौहानों का इतिहास history of chauhans of ranthambore in hindi
तराइन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज की पराजय के बाद उसके पुत्र गोविन्दराज ने कुछ समय बाद रणथम्भौर में चौहान वंश का शासन स्थापित किया. उनके उत्तराधिकारी वल्हण को दिल्ली सुल्तान इल्तुतमिश ने पराजित कर दुर्ग पर अधिकार कर लिया था. इसी वंश के शासक वाग्भट्ट ने पुन दुर्ग पर अधिकार कर चौहान वंश का शासन पुनः स्थापित किया. रणथम्भौर के सर्वाधिक प्रतापी एवं अंतिम शासक हम्मीर देव चौहान थे.
उन्होंने दिग्विजय की नीति अपनाते हुए अपने राज्य का चहुऔर विस्तार किया. राणा हम्मीर देव ने अलाउद्दीन के विद्रोही सैनिक नेता मुहम्मदशाह को शरण दे दी. अतः दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने रणथम्भौर पर आक्रमण किया. 1301 ई को हुए अंतिम युद्ध में हम्मीर चौहान की पराजय हुई और दुर्ग में रानियों ने जौहर किया तथा सभी राजपूत यौद्धा मारे गये. 11 जुलाई 1301 को दुर्ग पर अलाउद्दीन खिलजी का कब्जा हो गया, यह राजस्थान का पहला साका माना जाता हैं. इस युद्ध में अमीर खुसरो अलाउद्दीन की सेना के साथ ही था.
जालौर के चौहान Chauhan of Jalore
जालोर दिल्ली से गुजरात व मालवा, जाने के मार्ग पर पड़ता था। वहाॅ 13 वी सदी मे सोनगरा चौहानों का शासन था, जिसकी स्थापना नाडोल शाखा के कीर्तिपाल चौहान द्वारा की गई थी। जालौर का प्राचीन नाम जाबालीपुर था तथा यहाॅ के किले को ‘सुवर्णगिरी‘ कहते है । सन् 1305 में यहाॅ के शासक कान्हड़दे चौहान बने। अलाउद्दीन खिलजी ने जालोर पर अपना अधिकार करने हेतु योजना बनाई। जालौर के मार्ग में सिवाना का दूर्ग पड़ता हैं अतः पहले अलाउद्दीन खिलजी ने 1308 ई. मे सिवाना दुर्ग पर आक्रमण कर उसे जीता और उसका नाम ‘खैराबाद‘ रख कमालुद्दीन गुर्ग को वहा का दुर्ग रक्षक नियुक्त कर दिया। वीर सातल और सोम वीर गति को प्राप्त हुए सन् 1311ई. में अलाउद्दीन ने जालौर दुर्ग पर आक्रमण किया ओर कई दिनों के घेर के बाद अंतिम युद्ध मे अलाउद्दीन की विजय हुई और सभी राजपुत शहीद हुए। वीर कान्हड़देव सोनगरा और उसके पुत्र वीरमदेव युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए । अलाउद्दीन ने इस जीत के बाद जालौर में एक मस्जिद का निर्माण करवाया। इस युद्ध की जानकारी पद्मनाभ के ग्रन्थ कान्हड़दे तथा वीरमदेव सोनगरा की बात में मिलती है।
नाडोल के चौहान (Nadol’s Chauhan)
चौहानो की इस शाखा का संस्थापक शाकम्भरी नरेश वाकपति का पुत्र लक्ष्मण चौहान था, जिसने 960 ई. के लगभग चावड़ा राजपूतों के अधिपत्य से अपने आपको स्वतंत्र कर चौहान वंश का शासन स्थापित किया। नाडोल शाखा के कीर्तिपाल चौहान ने 1177ई. के लगभग मेवाड़ शासक सामन्तंसिंह को पराजित कर मेवाड़ को अपने अधीन कर लिया था। 1205 ई. के लगभग नाडोल के चौहान जालौर की चौहान शाखा में मिल गये।
सिरोही के चौहान Sirohi Ke Chauhan
सिरोही में चौहानों की देवड़ा शाखा का शासन था, जिसकी स्थापना 1311 ई. के आसपास लुम्बा द्वारा की गई थी। इनकी राजधानी चन्द्रवती थी। बाद में बार-बार मुस्लिम आक्रमणों के कारण इस वंश के सहासमल ने 1425 ई. में सिरोही नगर की स्थापना कर अपनी राजधानी बनाया। इसी के काल में महारणा कुंभा ने सिरोही को अपने अधीन कर लिया। 1823 ई. में यहा के शासक शिवसिंह ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर राज्य की सुरक्षा का जिम्मा सोपा। स्वतंत्रता के बाद सिरोही राज्य राजस्थान में जनवरी, 1950 में मिला दिया गया।
हाड़ौती के चौहान Hadauti Chauhan
हाड़ौती में वर्तमान बूंदी, कोटा, झालावाड एवं बांरा के क्षेत्र आते है। इस क्षेत्र में महाभारत के समय से मत्स्य (मीणा) जाति निवास करती थी। मध्यकाल में यहा मीणा जाति का ही राज्य स्थापित हो गया था। पूर्व में यह सम्पूर्ण क्षेत्र केवल बूंदी में ही आता था। 1342 ई. में यहा हाड़ा चौहान देवा ने मीणों को पराजित कर यहा चौहान वंश का शासन स्थापित किया। देवा नाडोल के चौहानों को ही वंशज था। बूंदी का यह नाम वहा के शासक बूंदा मीणा के पर पड़ा मेवाड़ नरेश क्षेत्रसिंह ने आक्रमण कर बूंदी को अपने अधीन कर लिया। तब से बूंदी का शासन मेवाड़ के अधीन ही चल रहा था। 1569 ई. में यहा के शासक सुरजन सिंह ने अकबर से संधि कर मुगल आधीनता स्वीकार कर ली और तब से बूंदी मेवाड़ से मुक्त हो गया।
1631 ई. में मुगल बादशाह ने कोटा को बूंदी से स्वतंत्र कर बूंदी के शासक रतनसिंह के पुत्र माधोसिंह को यहा का शासक बना दिया।मुगल बादशाह फर्रूखशियार के समय बूंदी नरेश् बुद्धसिंह के जयपुर नरेश जयसिंह के खिलाफ अभियान पर न जाने के करण बूंदी राज्य का नाम फर्रूखाबाद रख उसे कोटा नेरश को दे दिया परंतु कुछ समय बाद बुद्धसिंह को बूंदी का राज्य वापस मिल गया। बाद में बूंदी के उत्तराधिकार के संबंध में बार-बार युद्ध होते रहे, जिनमें में मराठै, जयपुर नरेश सवाई जयसिंह एवं कोटा की दखलंदाजी रही। राजस्थान में मराठो का सर्वप्रथम प्रवेश बूंदी में हुआ, जब 1734ई. में यहा बुद्धसिंह की कछवाही रानी आनन्द (अमर) कुवरी ने अपने पुत्र उम्मेदसिंह के पक्ष में मराठा सरदार होल्कर व राणोजी को आमंत्रित किया।
1818ई. में बूंदी के शासक विष्णुसिंह ने मराठों से सुरक्षा हेतु ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर ली और बूंदी की सुरक्षा का भार अंग्रेजी सेना पर हो गया। देश की स्वाधीनता के बाद बूंदी का राजस्थान संघ मे विलय हो गया।
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