पूना पैक्ट के बारे में जानकारी Information About Poona Pact In Hindi: पूना पैक्ट अथवा पूना समझौता भारत के इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना थी.
24 सितम्बर, 1932 के दिन भीमराव आम्बेडकर एवं महात्मा गांधी के बीच पूना की यरवदा सेंट्रल जेल में हुआ था. लंदन में आयोजित तीसरे गोलमेज सम्मेलन में भीमराव अम्बेडकर दलितों के लिए अलग से प्रतिनिधित्व की मांग लेकर आए.
पूना पैक्ट के बारे में जानकारी Information About Poona Pact In Hindi
poona pact in hindi: अम्बेडकर ने गांधी के कहने पर अपनी समस्त सिफारिशों का त्याग कर दिया. दलित वर्ग के लिए आरक्षित सीटों की संख्या प्रांतीय विधानमंडलों में 71 से बढ़ाकर 148 और केन्द्रीय विधायिका में कुल सीटों की 18% कर दीं गयी.
अंग्रेजों द्वारा हिन्दुओं से दलितों को अलग करने की इस कवायद का महात्मा गांधी ने पुर जोर विरोध किया और जेल में ही अनशन पर बैठ गये.
सांप्रदायिक अधिनिर्णय (कॉम्युनल एवार्ड) में संशोधन के लिए गांधी व अम्बेडकर के मध्य पूना पैक्ट (Poona Pact) हुआ, यहाँ हम जानेगे कि पूना पैक्ट समझौता क्या है उद्देश्य शर्ते आदि.
सांप्रदायिक पंचाट के विरुद्ध भारत के प्रमुख नेताओं डॉ राजेन्द्र प्रसाद, पं मदन मोहन मालवीय, धनश्याम दास बिडला, राज गोपालाचार्य और डॉ भीमराव अम्बेडकर ने पूना में एकत्र होकर विचार विनिमय किया.
उन्होंने गांधीजी तथा डॉ अम्बेडकर की सहमति से एक समझौता तैयार किया, जो पूना समझौता कहलाता हैं. इसे ब्रिटिश सरकार ने भी मान लिया था. इसकी शर्ते निम्न प्रकार थी.
- साम्प्रदायिक पंचाट में दलितों के लिए प्रांतीय व्य्वस्थापिकाओं की सभाओं में सभी राज्यों में निर्धारित 71 स्थानों को बढ़ाकर 148 कर दिया गया.
- संयुक्त चुनाव प्रणाली की व्यवस्था की गई, दलितों के लिए चुनाव क्षेत्र की व्यवस्था समाप्त कर दी गई.
- स्थानीय संस्थाओं और सार्वजनिक सेवाओं में दलितों के लिए उचित प्रतिनिधित्व निश्चित किया गया.
- दलितों की शिक्षा हेतु आर्थिक सहायता की सिफारिश की गई.
- यह योजना शुरू में दस वर्षों के लिए होगी,
पूना पैक्ट से अंग्रेजों द्वारा साम्प्रदायिक पंचाट के माध्यम से दलितों को हिन्दुओं से अलग करने का षड्यंत्र विफल हो गया. गांधीजी ने पंचाट के विरुद्ध 20 सितम्बर 1932 को आमरण अनशन शुरू कर दिया था. पूना पैक्ट के बाद 26 सितम्बर 1932 को अपना अनशन तोड़ दिया था.
पूना पैक्ट क्या है?
भारत के आजाद होने के पहले यानी कि साल 1908 में अंग्रेजी हुकूमत ने अपने शासनकाल में दलित वर्ग के लोगों और शोषित वर्ग के लोगों को अधिकार देने के लिए ऐसी जातियों को बढ़ाने की कोशिशें चालू कर दी थी, जिनकी हिस्सेदारी शासनकाल में कम थी।
इसके पीछे अंग्रेजी हुकूमत का यह मानना था कि अगर वह ऐसा करते हैं, तो हिंदुस्तान में हिंदू धर्म कई मत, मजहब या फिर संप्रदाय में बट जाएगा। इसके बाद ब्रिटिश गवर्नमेंट ने इंडियन गवर्नमेंट अधिनियम को पारित किया।
इस अधिनियम के तहत आरक्षण ऐसे लोगों को देने का प्रावधान किया गया, जो दलित वर्ग से संबंध रखते थे या फिर कमजोर अथवा शोषित वर्ग के थे।
दूसरी तरफ बाबा भीमराव अंबेडकर भी काफी प्रयास कर रहे थे और उन्हीं के प्रयास के फलस्वरूप अलग-अलग जाति और धर्मों के लिए कम्युनल अवार्ड देने की पहल ब्रिटिश गवर्नमेंट ने चालू की थी। जब साल 1924 आया तो एक रिपोर्ट प्रस्तुत हुई, उस रिपोर्ट के अंतर्गत दलित वर्ग के लोगों को प्रतिनिधित्व देने की बात कही गई।
जिसके अंतर्गत साइमन कमीशन के द्वारा साल 1928 में इंडिया के दलित और शोषित वर्ग को ठीक-ठाक मात्रा में प्रतिनिधित्व देने की बात को एक्सेप्ट कर लिया गया और काफी प्रयासों के बाद साल 1932 में 17 अगस्त के दिन ब्रिटिश गवर्नमेंट के द्वारा दलितों को कम्युनल अवार्ड देने की शुरुआत की गई, जिसका उद्देश्य था दलितों को अलग निर्वाचन का स्वतंत्र अधिकार देना।
दलितों को दो वोटों का अधिकार देने की घोषणा
जब ब्रिटिश गवर्नमेंट ने दलितों को कम्युनल अवार्ड देने की घोषणा की तो इसके अंतर्गत आरक्षित सीट पर अलग से निर्वाचन द्वारा दलितों को प्रतिनिधि चुनने का हक मिला,
वहीं दूसरी तरफ जो जाति सामान्य वर्ग से संबंध रखती थी, उन जातियों को उनके इलाके में सवर्णों को चुनने के लिए 2 वोट देने का अधिकार भी प्राप्त हुआ।
इस प्रकार 2 वोट के अधिकार को प्राप्त करने के बाद इंडिया का दलित अपना प्रतिनिधि चुन सकते थे वही शोषित वर्ग एक वोट से अपना प्रतिनिधि चुन सकते थे।
गांधीजी ने किया विरोध
बाबा साहब इस बात से काफी खुश है कि दलितों को 2 वोट देने का अधिकार प्राप्त हुआ है, क्योंकि बाबा साहब भीमराव अंबेडकर का ऐसा मानना था कि दलितों को 2 वोट देने का अधिकार प्राप्त होने से उनकी स्थिति में काफी सुधार आएगा। परंतु दूसरी तरफ महात्मा गांधी जी इस बात के विरोध में थे कि दलितों को 2 वोट देने का अधिकार प्राप्त हुआ है।
क्योंकि गांधीजी का मानना था कि दलितों को 2 वोट देने का अधिकार प्राप्त होने की वजह से हिंदू समाज आपस में छिन्न भिन्न हो जाएगा। इसलिए गांधी जी के द्वारा ब्रिटिश गवर्नमेंट को इसके विरोध में बहुत सारे पत्र लिखे गए थे.
परंतु ब्रिटिश गवर्नमेंट ने उन पत्र का कोई भी जवाब नहीं दिया था, जिसके परिणाम स्वरूप गांधीजी अनशन करने के लिए मजबूर हुए और इस प्रकार उन्होंने साल 1932 में 18 अगस्त के दिन पुणे की यरवदा जेल में आमरण अनशन की शुरुआत की।
अनशन चालू होने के थोड़े दिनों के बाद ही गांधी जी की तबीयत काफी खराब होने लगी। वही इस दरमियान बाबा साहब अंबेडकर भी दलित और शोषित वर्ग के अधिकारों से समझौता करने को लेकर के लगातार दबाव बना रहे थे। हालांकि कुछ जगह पर अंबेडकर जी के खिलाफ भारी विरोध प्रदर्शन भी हुआ था और उनके पुतले भी जलाए गए थे।
इसके अलावा कुछ जगह पर सामान्य समुदाय के जो लोग थे, उन्होंने दलित लोगों की बस्ती में घुसकर के उनके साथ मारपीट भी की थी और उनके घर को भी जला दिया था।
इन सभी सिचुएशन को देखते हुए अंबेडकर जी को महात्मा गांधी जी के सामने जाना पड़ा और उन्होंने साल 1932 में 24 सितंबर के दिन दूसरे बड़े नेताओं के साथ महात्मा गांधी से मुलाकात की.
इस प्रकार जेल के अंदर ही भीमराव अंबेडकर और महात्मा गांधी के बीच समझौता हुआ, जिसे पूना पैक्ट समझौता का नाम दिया गया। बता दें कि अंबेडकर साहब इस समझौते पर हस्ताक्षर नहीं करने वाले थे परंतु उन्हें मजबूरन ऐसा करना पड़ा।
क्या थीं पूना पैक्ट की शर्तें
जब पूना पैक्ट समझौता हुआ तो इस समझौते के बाद दलितों को जो अलग निर्वाचन और 2 वोट देने का अधिकार प्राप्त हुआ था, वह खत्म हो गया था।
इसके स्थान पर दलित वर्ग के लोगों के लिए प्रांतीय विधानमंडल में आरक्षित सीटों की संख्या को ज्यादा कर दिया गया था। यह संख्या 71 से बढ़ाकर के 147 कर दी गयी थी।
इसके अलावा दलित वर्ग के लोगों के लिए केंद्रीय विधायिका में 18 पर्सेंट सीट को भी आरक्षित कर दिया गया था। पूना पैक्ट समझौता महात्मा गांधी और डॉक्टर भीमराव अंबेडकर तथा दूसरे दलित नेताओं के बीच हुआ था।
यह समझौता डॉक्टर भीमराव अंबेडकर को मजबूरी में करना पड़ा था। उनकी बिल्कुल भी इच्छा नहीं थी कि यह समझौता हो परंतु महात्मा गांधी के दबाव में उन्होंने यह समझौता किया।