पृथ्वीराज राठौड़ का जीवन परिचय व इतिहास Prithviraj Rathore Of Bikaner History Biography In Hindi: पीथल के नाम से जाने जाने वाले राठौड़ बीकानेर के शासक और कवि थे.
आज के लेख में राठौड़ के जीवन उनकी रचनाओं और राणा प्रताप के साथ संवाद के बारे में जानकारी दी गई हैं.
पृथ्वीराज राठौड़ का जीवन परिचय व इतिहास Prithviraj Rathore In Hindi
पृथ्वीराज राठौड़ बीकानेर नरेश राव कल्याणमल व रानी भाग्तादे सोनगरी के बेटे और राव जैतसी के पोते थे. इतिहास प्रसिद्ध महाराजा रायसिंह इनके बड़े भाई थे.
पृथ्वीराज मुगल दरबार में अकबर के कृपापात्र थे. और प्रायः शाही दरबार में ही रहा करते थे. बादशाह अकबर ने इन्हें गागरोंन का किला दिया था.
ये पीथल नाम से काव्य रचना भी किया करते थे. डिंगल भाषा के कवियों में पृथ्वीराज का स्थान काफी उच्च है. इनके प्रमुख ग्रंथ है- वेलि क्रिसन रूखमणी री, दसम भागवतरा दूहा, गंगा लहरी, बसदेवराउत, दसरथरावउत, कल्ला रायमलोत री कुंडलियाँ आदि.
वेलि क्रिसन रुखमणी री’ पृथ्वीराज की सर्वोत्कृष्ट रचना है. वेलि डिंगल में लिखा हुआ 305 पद्यों का एक खंड काव्य है. इसमें श्री कृष्ण रुखमणी के विवाह की कथा का वर्णन है.
जीवन परिचय
बीकानेर की रियासत के राजा राजसिंह के भाई जो अकबर के मुगल दरबार में रहते थे. ये वीर रस के बेहतरीन कवि थे साथ ही मेवाड़ की स्वाधीनता तथा राजपूती शान की रक्षा की खातिर निरंतर संघर्ष करने वाले राणा प्रताप के अनन्य समर्थक भी थे. इन का अकबर के काल में लिखे हुए इतिहास ‘अकबरनामा’ में पृथ्वीराज राठौड़ का उल्लेख कई स्थानों पर हैं.
साहित्य संसार में ‘पीथळ’ के नाम से विख्यात पृथ्वीराज राठौड़ बीकानेर के राव कल्याणमल के छोटे बेटे थे. राठौड़ का जन्म वि.सं. 1606 मार्गशीर्ष वदि 1 अथवा 6 नवम्बर, 1549 के दिन बीकानेर में ही हुआ था.
बालपन से ये बड़े वीर, विष्णु के परम भक्त और आला दर्जे के काव्यकार थे. राठौड़ को साहित्य की समझ गम्भीर और सर्वांगीण थी. ये संस्कृत और डिंगल साहित्य के वे उस समय के जाने माने विद्वान थे.
पृथ्वीराज राठौड़ के विषय में आधुनिक राजस्थान के इतिहासकार कर्नल टॉड लिखते है कि राठौड़ अपने समय के पराक्रमी राज प्रमुखों में से एक थे.
वे युद्ध कला में प्रवीण तो थे ही साथ ही काव्य कला में भी राठौड़ का नाम बड़ा था. चारण सभा द्वारा पृथ्वीराज को सभी की एक राय से प्रशंसा में ताल पत्र से नवाजा गया. इनकी प्रताप के प्रति अगाध श्रद्धा और भक्ति थी.
राजस्थान के एक अन्य इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा अपनी पुस्तक में राठौड़ के बारे में लिखते है वह महान वीर, उच्च कोटि का कवि और विष्णु जी का भक्त था. अकबर के दरबार में उनका स्थान ऊंचा था.
मुह्नोत नैणसी की ख्यात के अनुसार पृथ्वीराज राठौड़ को अकबर द्वारा गागरोन विजय के बाद किला जागीर में दे दिया गया, ये 1581 की काबुल की लड़ाई और 1596 में अहमदनगर के युद्ध में भी शाही सेना का हिस्सा थे.
जब अकबर और रांणा प्रताप के बीच शत्रुता चरम पर थी तब भी प्रताप के हितैषी के रूप में मुगल दरबार में राठौड़ की उपस्थिति थी. उधर रांणा प्रताप दर बदर की जिन्दगी से संघर्ष कर रहे थे.
एक दिन अपनी छोटी बेटी को रोटी के लिए तरसते देख प्रताप विचलित हो उठे और उन्होंने अकबर से संधि करने के निश्चय से पत्र मुगल दरबार भेजा. जिसे पाकर अकबर को बड़ी प्रसन्नता हुई. क्योंकि उसे बस प्रताप की अधीनता की चाहत थी.
पातल जो पतसाह, बोलै मुख हूंतां बयण।
हिमर पछम दिस मांह, ऊगे राव उत॥
जब सम्राट अकबर यह पत्र लेकर पृथ्वीराज राठौड़ को दिखाते है तो राठौड़ इसकी विश्वसनीयता से इनकार कर देते हैं. वे अकबर की इजाजत से प्रताप को ओज रस से ओतप्रेत पत्र में एक कविता लिखते हैं.
उस पत्र में लिखी कविता में कहते है हे प्रताप आपके रहते ऐसा कौन है जो मेवाड़ की धरा को घोड़ों के खुरो से रौद सके. हिन्दूपति प्रताप आप हिन्दुओं की लज्जा हो. अपनी शपथ को पूरा करो जितना कष्ट पीड़ा सहना पड़े सहन करो.
पटकूं मूंछां पाण, के पटकूं निज जन करद।
दीजे लिख दीवाण, इण दो महली बात इक॥
मैं अपनी मूंछ पर तांव दू या शरीर काट डालू ये जवाब में जरुर लिखियेगा. जब यह पत्र राणा प्रताप के पास पंहुचा तो उनका स्वाभिमान जाग उठा और पत्र के जवाब में लिखते है जब तक प्रताप जीवित है आप अपनी मुछ पर ताव दीजिए.
मेरी तलवार तुर्कों के सिर पर ही हैं. इस भाव के साथ राणा द्वारा पृथ्वीराज राठौड़ को पत्र का जवाब इन दोहों के साथ इस प्रकार दिया था.
तुरक कहासी मुख पतौ, इण तन सूं इकलिंग।
ऊगै जांही ऊगसी, प्राची बीच पतंग॥
खुसी हूंत पीथल कमध, पटको मूंछा पाण।
पछटण है जेतै पतौ, कलमाँ तिस केवाण॥
सांग मूंड सहसी सको, समजस जहर स्वाद।
भड़ पीथल जीतो भलां, बैण तुरब सूं बाद॥
यह पत्र पाकर पृथ्वीराज को बड़ी प्रसन्नता हुई, हिंदुत्व का सूरज फिर से जाग उठा था. प्रताप के उत्साह को बढ़ाने के लिए राठौड़ एक और पत्र लिखते है तथा उसमें यह गीत भेजते हैं.
नर जेथ निमाणा निलजी नारी,
अकबर गाहक बट अबट॥
चौहटे तिण जायर चीतोड़ो,
बेचै किम रजपूत बट॥
रोजायतां तणें नवरोजे,
जेथ मसाणा जणो जाण॥
हींदू नाथ दिलीचे हाटे,
पतो न खरचै खत्रीपण॥
परपंच लाज दीठ नह व्यापण,
खोटो लाभ अलाभ खरो॥
रज बेचबा न आवै राणो,
हाटे मीर हमीर हरो॥
पेखे आपतणा पुरसोतम,
रह अणियाल तणैं बळ राण॥
खत्र बेचिया अनेक खत्रियां,
खत्रवट थिर राखी खुम्माण॥
जासी हाट बात रहसी जग,
अकबर ठग जासी एकार॥
है राख्यो खत्री धरम राणै,
सारा ले बरतो संसार॥
राठौड़ महाराणा के उत्साहवर्धन में कहते है जहाँ निर्लज्ज स्त्री पुरुष है तथा उनका ग्राहक अकबर है उस बाजार में चित्तौड़ का स्वाभिमान कैसे बच सकेगा.
मुसलमानों के नौरोज में जहाँ हर व्यक्ति लूटा गया उस दिल्ली के बाजार में राणा अपना क्षत्रियपन नहीं बेचेगे. हमीर के वंशज पराधीनता के सुख भोगने लाभ अलाभ देखकर अपनी रजपूती शान बादशाही दूकान में कभी नही देगे.
हमारे पूर्वजों ने अपने दायित्व का पालन करते हुए तलवार के दम पर क्षत्रिय धर्म निभाया, जबकि कुछ ने अपने जमीर को बेच भी दिया था. एक दिन ऐसा भी आएगा जब अकबर रूपी ठग इस संसार को छोड़ जाएगा.
उसका बाजार भी समाप्त हो जाएगा मगर यह बात हमेशा के लिए अमर हो जाएगी कि मेवाड़ के प्रताप ने क्षत्रिय धर्म का पालन किया.
इस समय यह जरूरत है कि सभी अपने क्षत्रिय धर्म का पालन करे और राणा प्रताप की भांति दुखों को भोगकर भी अपने स्वाभिमान की रखवाली करें.
इस तरह ओजस्वी कविता के माध्यम से पृथ्वीराज राठौड़ ने लगभग समर्पण कर चुके प्रताप के रजपूती अभिमान को जगाया और उनका कर्तव्य याद दिलाया.
पृथ्वीराज राठौड़ का विवाह रानी लीलादे के साथ हुआ थे. जिनसे बेहद लगाव रखते थे. लीलादे भी कविता किया करती थी. मगर कम ही आयु में उनकी मृत्यु हो गई, जिसका राठौड़ को बड़ा सदमा पंहुचा.
जब लीलादे का पार्थिव शरीर जल रहा था. जब पृथ्वीराज खुद को रोक नहीं पाए और उन्होंने एक दोहा पढ़ा और बिलख पड़े, उनका दोहा इस प्रकार था.
‘तो राँघ्यो नहिं खावस्याँ, रे वासदे निसड्ड।
मो देखत तू बालिया, साल रहंदा हड्ड।
अर्थात हे निष्ठुर अग्नि तुमसे पका हुआ भोजन अब मैं ग्रहण नहीं करूंगा, क्योंकि तुमसे मेरी आँखों के सामने मेरी लीलादे को जला डाला. पत्नी के वियोग में राठौड़ का स्वास्थ्य बहुत खराब हो गया. अतः सम्बन्धियों ने उनका पुनः विवाह चम्पादे के साथ कराया.
जब भी राजस्थानी के काव्यकारो की बात आती हैं तो पृथ्वीराज राठौड़ का बड़ा नाम हैं. वे मानव के अंतर्मन में झाँक कर उनके मन के भाव को समझने में समर्थ थे.
वेलि क्रिसन रुकमणी री उनकी डिंगल भाषा में रचित सर्वाधिक लोकप्रिय रचना हैं. करीब 305 पदों का यह एक खंड काव्य हैं, इस ग्रंथ में श्रीकृष्ण और रुक्मणी के विवाह की गाथा का वर्णन किया गया हैं.
वर्ष 1580 के आस-पास इसका रचनाकाल माना जाता हैं. वेलि क्रिसन रुकमणी री का पहली बार सम्पादन इटालियन भाषा विद एल पी टेस्सीटोरी ने किया था. बाद में जाकर 1917 में इसका प्रकाशन किया गया.
टैरीटोरी ने पृथ्वीराज को ‘डिंगल का होरेस’ की उपमा दी. दुरसा आढ़ा ने तो वेलि क्रिसन रुकमणी री को तो पांचवे वेद की उपमा दे दी. हिंदी के दो विद्वानों ने इस ग्रंथ का हिंदी में सम्पादन कर टीका भी लिखी हैं.
पृथ्वीराज राठौड़ ने वेलि क्रिसन रुकमणी री के अतिरिक्त दसम भागवतरा दूहा, गंगा लहरी, बसदेवराउत, दसरथरावउत, कल्ला रायमलोत री कुंडलियाँ भी लिखी.
राजस्थान में पृथ्वीराज को सम्मानस्वरूप उनके उपनाम पीथल पर राजस्थानी भाषा अकादमी पुरस्कार रखा गया. जिसके तहत एक लाख रूपये की राशि और अभिशंसा पत्र दिया जाता हैं.