Rao Maldeo History In Hindi: जिस प्रकार महाराणा सांगा एवं महाराणा प्रताप ने मेवाड़ की शक्ति और प्रतिष्ठा में वृद्धि की, उसी प्रकार मालदेव के नेतृत्व में जोधपुर मारवाड़ के राठौड़ों ने अपूर्व शक्ति अर्जित की.
उसने सम्राज्य का विस्तार कर मारवाड़ की सीमा दिल्ली तक पंहुचा दी. बाबर की मृत्यु के बाद दिल्ली की अस्थिरता का लाभ मालदेव ने उठाया.
सांगा की मृत्यु के बाद मेवाड़ में भी कुछ समय के लिए अस्थिरता रही. इस समय राजपूत शासकों में मालदेव ही शक्तिशाली था.
राव मालदेव का इतिहास | Rao Maldeo History In Hindi
मालदेव ने भद्राजुनं, रायपुर, नागौर, मेड़ता, अजमेर आदि पडौसी राज्यों पर अधिकार कर लिया. बाद में चाटसू , फतेहपुर, टोडा, लालसोट पर भी अधिकार कर लिया.
बंगाल में शेरशाह व हुमायु के मध्य संघर्ष का मालदेव ने लाभ उठाया और उसने हिंडौन तथा बयाना पर भी अधिकार कर अपनी सीमा का विस्तार किया. इसके अतिरिक्त मालदेव ने सिवाना, सांचौर, जालोर पर भी अधिकार कर लिया.
जैसलमेर के राव लूणकरण की पुत्री उमादे का विवाह 1536 ई. में जोधपुर के राव मालदेव के साथ हुआ यह विवाह अधिक समय तक नहीं चल पाया. पति पत्नी में अनबन होने के कारण दोनों अलग अलग रहने लगे.
रानी उमादे ने अपना शेष समय तारागढ़ दुर्ग में व्यतीत किया. इन्हें राजस्थान के इतिहास में रूठी रानी के नाम से भी जाना जाता हैं.
मालदेव का शासन, राज्य विस्तार, निति (Maldev’s rule, state expansion, policy)
मालदेव ने हुमायूं के प्रति सहयोग की निति अपनाई. जिस समय मालदेव अपने सम्राज्य विस्तार में व्यस्त था, हुमायूं अपनी बादशाहत बचाने के लिए शेरशाह से संघर्ष कर रहा था.
कन्नौज के युद्ध में शेरशाह से पराजय के बाद हुमायूं को पलायन करना पड़ा था. आश्रय की खोज में इधर उधर भटक रहा था. मालदेव ने इस समय कूटनीति से काम लिया.
शेरशाह के भावी संकट को लेकर मालदेव आशंकित था. शेरशाह की बढ़ती हुई शक्ति को देखकर युद्ध करने के लिए हुमायूँ को 20 हजार घुड़सवारों की सहायता देने का संदेश भिजवाया और उसकी सहायता की.
शेरशाह और मालदेव दोनों के राज्यों की सीमा मिल रही थी. मारवाड़ के शासक मालदेव की शक्ति को नष्ट करने की दृष्टि से शेरशाह ने 1543 में 80 हजार सैनिको की सेना मालदेव के विरुद्ध भेजी.
मालदेव का शक्तिशाली राज्य शेरशाह के लिए चुनौती था. दोनों ने ही मौर्चेबन्दी की. शेरशाह ने अपना पड़ाव बावरा व मालदेव ने गिर्री नामक स्थान पर अपना पड़ाव डाला. एक माह तक पड़ाव ऐसें ही चलता रहा. कई बार तो शेरशाह परेशान होकर वापिस लौटने की सोचता रहा.
सुमेल गिरी का युद्ध (Giri Sammel War in Hindi)
जब शान्ति से काम नही चला तो शेरशाह छल कपट की निति पर आ गया. मालदेव व उनके सेनापतियों कुपा व जेता में फूट डालने के प्रयास किये.
उसने कुपा के डेरे में 20 हजार रूपये भिजवाये और कम्बल भेजने के लिए कहा. बाद में इन्ही 20 हजार रुपयों को जेता के डेरे में भिजवा दिए कि सिरोही से तलवारे मंगवा लेना.
इसकी सुचना उसने मालदेव के पास भिजवा दी. राव मालदेव शेरशाह के इस छल कपट को समझ नही पाया. और अपने सैनिकों पर अविश्वास कर लिया और बिना युद्ध किये ही 04 जनवरी 1544 रात्रि को जोधपुर लौट आया. लेकिन जिन कुपा व जेता पर अविश्वास किया था, वे युद्ध में ही डटे रहे.
शेष राठौड़ सरदारों के साथ 5 जून 1544 को गिरी सुमेल का प्रसिद्ध युद्ध हुआ. कुपा व जेता अपने 1200 सैनिकों के साथ इतनी वीरता से लड़े कि अफगान सेना के पाँव उखड़ने लगे.
लेकिन इसी समय जलाल खान अतिरिक्त सेना लेकर आ पंहुचा और राजपूत सैनिकों को घेर लिया. जेता और कूपा वीरगति को प्राप्त हुए. अब्बास खान ने अपने विवरण में लिखा कि शेरशाह को जितने की उम्मीद बहुत कम थी, बड़ी मुश्किल से वह यह युद्ध जीत सका.
उसे कहने के लिए मजबूर होना पड़ा कि एक मुट्ठी बाजरे के लिए मै हिन्दुस्तान की बादशाहत खो देता.
चरित्र
मालदेव को केवल मारवाड़ में ही नही अपितु भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है. उसने अपने छोटे से राज्य को विशाल मारवाड़ साम्राज्य के रूप में परिणित किया.
उसके राज्य में 58 परगने थे. उसने 52 युद्ध करके यह विशाल सम्राज्य स्थापित किया था. अकबर भी मालदेव की मृत्यु के बाद जोधपुर पर अधिकार कर पाया.
वीर होने के साथ साथ राव मालदेव दानी प्रवृति का व्यक्ति था. ख्यात लेखकों ने उसे हिन्दू बादशाह की पदवी दी. वह सवयं संस्कृत भाषा का विद्वान था.
इतना होते हुए भी मालदेव में दूरदर्शिता की कमी थी. शेरशाह के विरुद्ध उसने जेता व कुंपा पर अविश्वास करके अपनी जीत को पराजय में बदल दिया. बीकानेर और मेवाड़ को अकारण अपना विरोधी बना दिया.
राव मालदेव राठौड़ के सेनापति राव जैताजी-कूंपाजी राठौड़ (Jeta Kumpa heroic sacrifice Day history)
गिरी-सुमेल युद्ध राजस्थान ही नहीं भारत के इतिहास के सबसे साहसी युद्धों में से एक था. आमजन की रक्षार्थ जैंता व कूंम्पा जी के नेतृत्व में महज हजारो सैनिकों के साथ मालदेव की सेना ने शेरशाह के साथ युद्ध किया.
भलेही इस युद्ध में जैंता व कूंम्पा जी को हार का सामना करना पड़ा हो मगर वीरों की वीरता के आगे शेरशाह हार गया था. उसने कहा था एक मुट्ठी भर बाजरे के लिए मै हिन्दुस्तान की सल्तनत खो बैठता.
गिरी सुमेल के युद्ध में यदि शेरशाह छल कपट का सहारा नहीं लेता और मालदेव युद्ध भूमि नहीं छोड़ते तो यह युद्ध कुछ नया परिणाम देता और सदियों तक इसे याद रखा जाता.
फिर भी जैता और कूपा की वीरता के गीत आज भी गाए जाते हैं. 1544 में जब अफगान सरदार शेरशाह मारवाड़ पर हमले के लिए रवाना हुआ तो जैताजी-कूंपाजी को इसकी जानकारी मिल गयी थी, उन्होंने मालदेव को इसकी सूचना दी और युद्ध की तैयारी में लग गये.
गिरी सुमेल का युद्ध पाली के जैतारण के पास सुमेल नामक जगह पर लड़ा गया. यहाँ सूरी की सेना करीब एक माह तक डेरा डाले रही.
शेरशाह किसी के न्यौते पर आक्रमण करने के लिए तो आ पंहुचा परन्तु जब उसने मारवाड़ के राठौड़ों की वीरता के किस्से सुने तो वह सीधा हमला करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया.
आखिर शेरशाह एक अपवाह फैलाने में सफल रहा कि मालदेव युद्ध भूमि छोडकर चले गये हैं इस झूठ से राठौड़ों की सेना का उत्साह ठंडा पड़ गया फिर भी 12 हजार राजपूत सैनिक लाखों की अफगान सेना से भिड़ गये और इस युद्ध में हजारों नागरिकों के साथ वीर जैता-कूंपा भी लड़ते हुए शहीद हो गए.
राव मालदेव की मृत्यु
गिरी सुमेल युद्ध में जीत के बाद शेरशाह का पूरे मारवाड़ पर अधिकार हो गया था. ऐसे में राव मालदेव पीपलोद सिवाना के पहाड़ों में अपना जीवन बिताने लगे.
सूरी की मृत्यु की खबर मिलने के पश्चात 1546 ने मालदेव ने जोधपुर पर आक्रमण किया और पुनः अपने अधिकार में कर लिया. धीरे धीरे मारवाड़ के समस्त इलाकों को दुबारा जीत लिया.
अपने जीवनकाल में इनके पास सबसे अधिक 58 परगनों का शासन रहा और 52 युद्ध लड़े. 7 दिसम्बर 1562 को हिन्दुस्तान का हशमत वाला राजा राव माल देव की मृत्यु हो गई.
इनके बारे में तबकाते अकबरी का लेखक निजामुद्दीन ने लिखा हैं कि हिन्दुस्तान के राजाओं में मारवाड़ के शासक मालदेव की फौज और शानो शौकत सबसे बढ़कर थी.