नमस्कार आज का निबंध, डॉ भीमराव अम्बेडकर पर निबंध Essay On Dr. Bhimrao Ambedkar In Hindi पर दिया गया हैं.
सरल भाषा में संविधान निर्माता बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर पर निबंध में उनके जीवन सिद्धांतों संघर्ष और विचारों की कहानी सरल भाषा में दी गई हैं. उम्मीद करते है आपको ये निबंध पसंद आएगा.
डॉ भीमराव अम्बेडकर पर निबंध Essay On Dr. Bhimrao Ambedkar In Hindi
गीता में कहा गया है यदा कदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवती भारतः अभ्युथानम अधर्मस्य तदात्मानम स्रजाम्यह्म अर्थात जब धरती पर पाप का बोझ बढ़ जाता है तो भगवान् स्वयं उसे मिटाने के लिए प्रकट होते हैं, 20 वी सदी का वातावरण इस तरह का ही था.
दुष्ट अंग्रेज भारतीय जनता पर नाना प्रकार के अत्याचार ढहा रहे थे. बुद्धिजीवी अपनी राजनीतिक धरातल खोज रहे थे. तो कुछ धर्म जाति के नाम पर लोगों में भेद कर उन्हें विभाजित करने के षड्यंत्र रच रहे थे.
ऐसी दुर्व्यवस्था में बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने जन्म दिया. उन्होंने न सिर्फ दलितों का उद्धार किया बल्कि देश के लोगों को अधिकार देकर उन्हें सदियों की दासता से मुक्त कराया.
भीमराव अम्बेडकर की जीवनी (Biography of Bhimrao Ambedkar In Hindi)
16 अप्रैल 1891 को मध्यप्रदेश के महू में बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर का जन्म हुआ था. इनके पिताजी का नाम रामजी मालोजी सकपाल सेना में मेजर की नौकरी करते थे तथा उनकी नियुक्ति महू में ही थी. अम्बेडकर की माता का नाम भीमाबाई मुरबादकर था.
भीमराव की जाति म्हार थी ये हिन्दू धर्म के अनुयायी थे. यह वह दौर था जब उच्च जाति स्वर्ण हिन्दू जातियों द्वारा म्हार तथा निम्न जातियों के लोगों को अप्रश्य समझते थे तथा इनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता था. अम्बेडकर को भी बचपन में सवर्णों के इसी अपमानजनक व्यवहार को झेलना पड़ा.
भीमराव अम्बेडकर की शिक्षा व बचपन (Education and childhood of Bhimrao Ambedkar)
जब ये पढने के लिए स्कूल जाते तो इनके साथ बुरा बर्ताव किया जाता था. अम्बेडकर को अन्य छात्रों के साथ बैठने की बजाय अलग से बैठना पड़ता था.
उन्हें पानी पीने तक के लिए औरों पर निर्भर रहना पड़ता था. यदि स्कूल में चपरासी होता तो ही पानी पी पाते थे. वो भी पानी का लोटा ऊपर रखकर पानी पिलाता था.
उन्हें लोगों के बर्तन को छूने तक का हक नहीं था. अपमान भरे इस बाल्य जीवन का असर उनके जीवन पर पड़ा. उन्होंने तभी निश्चय कर लिया कि वे अब से दलित शोषित वर्ग का नेतृत्व करते हुए सम्पूर्ण समाज से हक के लिए लड़ेगे तथा उन्हें वास्तविक अधिकार व सम्मान दिलाकर ही रहेगे.
भीमराव अम्बेडकर का विवाह व उच्च शिक्षा (Marriage and higher education of Bhimrao Ambedkar)
वर्ष 1905 में अम्बेडकर का विवाह रमाबाई के साथ हो गया, इसी वर्ष इनके पिताजी इन्हें लेकर मुंबई आए गये तथा इनका दाखिला एलफिंसटन स्कूल में करवा दिया.
1907 में अम्बेडकर ने दसवी की परीक्षा अच्छे अंकों के साथ उतीर्ण की तो बडौदा के महाराजा सयाजी राव गायकवाड़ ने इनकी 25 रूपये प्रति माह छात्रवृति देनी शुरू कर दी.
जब 1912 में भीमराव अम्बेडकर ने बी ए कर ली तो उसके बाद महाराजा गायकवाड ने इन्हें अपनी सेना में उच्च पद पर नियुक्त कर दिया.
अगले ही साल इनके पिता का देहांत हो जाने पर भीमराव ने अपनी नौकरी से त्याग पत्र दे दिया तथा आगे की पढ़ाई के लिए विदेश जाने का निश्चय किया.
अम्बेडकर विदेश में उच्च शिक्षा (Ambedkar Higher Education Abroad)
जब इन्होने सेना की नौकरी से इस्तीफा देकर आगे की पढ़ाई के लिए विदेश जाने की इच्छा जताई तो गायकवाड़ ने इस निर्णय का फैसला की तथा इस कार्य के लिए उन्हें आर्थिक मदद भी दी.
भीमराव अम्बेडकर आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका गये. तथा वहां के कोलम्बिया युनिवर्सिटी न्यूयार्क से 1915 में एमए किया.
अगले ही साल इन्होने पीएचडी की पदवी प्राप्त कर ली. इतना कुछ करने के बाद भी इनकी ज्ञान पिपासा शांत नहीं हुई तथा 1923 में अमेरिका से ब्रिटेन चले गये.
जहाँ इन्होने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से डॉक्टर ऑफ साइंस की उपाधि प्राप्त की, इसके बाद अपना करियर कानून में बनाने के लिए अम्बेडकर ने बाए एट लॉ की डिग्री हासिल की.
भीमराव अम्बेडकर की स्वदेश वापसी (Bhimrao Ambedkar returns home)
वर्ष 1923 में भीमराव अम्बेडकर भारत लौट आए, उन्होंने बम्बई उच्च न्यायालय में कानूनी वकालत के पेशे को चुना. उनकी राह यहाँ भी आसान नहीं थी निम्न जाति के होने के कारण यहाँ भी उनके साथ अपमानजनक व्यवहार किया जाता रहा. उन्हें कोर्ट में कुर्सी तक नहीं दी जाती थी न कि उनके हाथ में कोई केस आता था.
अचानक एक दिन एक हत्या के केस की सभी वकीलों ने पैरवी करने से इंकार कर दिया, वह केस अम्बेडकर को मिला उन्होंने इस केस की पैरवी इतने पुरजोर तरीके से की जज को उसके मुवक्किल के हक में फैसला देना पड़ा. इस घटना के बाद हर तरफ उनकी चर्चा होने लगी.
मगर अम्बेडकर का लक्ष्य अपने शोषित समाज को उनका हक दिलाना था. इस दिशा में उन्होंने 1927 में बहिस्कृत भारत नाम से एक पत्रिका का सम्पादन शुरू किया जिसके द्वारा दलितों के शोषण तथा उनके उद्धार करने के लिए समाज को जागृत करने का प्रयास किया.
1930 में तीस हजार दलितों के साथ इन्होने कालामंदिर में दलितों के प्रवेश पर रोक के विरुद्ध सत्याग्रह किया.
सवर्णों द्वारा उन पर लाठिया भांजी गई कई लोग घायल हुए मगर वो अपने निश्चय से पीछे नहीं हटे. आखिरकार उन तीस हजार लोगों को मंदिर में प्रवेश कराकर ही दम लिया. इस घटना के बाद लोग उन्हें बाबा साहब के नाम से जानने लगे.
भीमराव अम्बेडकर के दलितउद्धार कार्य (Dlituddhar Works Of BR Ambedkar)
1935 में भीमराव अम्बेडकर ने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी की स्थापना की जिसके माध्यम से उन्होंने सवर्ण समाज के खिलाफ दलितों के हितों की लड़ाई लड़ी. 1937 में बम्बई के स्थानीय निकाय के चुनावों में भीमराव अम्बेडकर की पार्टी को पन्द्रह में से 13 स्थानों पर विजय मिली.
वे गांधीजी के दलितोंद्धार की नीति से संतुष्ट नहीं थे. मगर अपनी सोच तथा विचारधारा के कारण ये सरदार पटेल तथा महात्मा गाँधी जैसे राष्ट्रीय नेताओं को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल रहे.
जब 15 अगस्त 1947 को भारत को आजादी मिली तो पहले मंत्रिमंडल में इन्हें कानून मंत्री बनाया गया तथा संविधान सभा के गठन के बाद अम्बेडकर को संविधान प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया गया. इन्हें भारत के संविधान का निर्माता पिता आदि कहा जाता हैं क्योंकि इन्होने संविधान निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
भीमराव अम्बेडकर की पुस्तकें (Books of Bhimrao Ambedkar)
बाबा साहब ने अपने समाज को हक दिलाने के उद्देश्य से कई किताबे लिखी. उन्होंने अपने जीवनकाल इतिहास में कई पुस्तकों एवं पत्रिकाओं का सम्पादन किया.
जिनमे कुछ नाम – भारत का राष्ट्रीय अंश, भारत में जातियां और उनका मशीनीकरण, भारत में लघु कृषि और उनके उपचार, मूल नायक (साप्ताहिक), ब्रिटिश भारत में साम्राज्यवादी वित्त का विकेंद्रीकरण, रुपये की समस्या: उद्भव और समाधान, ब्रिटिश भारत में प्रांतीय वित्त का अभ्युदय, बहिष्कृत भारत (साप्ताहिक), जनता (साप्ताहिक), जाति विच्छेद, संघ बनाम स्वतंत्रता, पाकिस्तान पर विचार, श्री गाँधी एवं अछूतों की विमुक्ति, रानाडे, गाँधी और जिन्ना, कांग्रेस और गाँधी ने अछूतों के लिए क्या किया, शूद्र कौन और कैसे, महाराष्ट्र भाषाई प्रान्त, भगवान बुद्ध और उनका धर्म.
भीमराव अम्बेडकर का इतिहास कहानी (History of Bhimrao Ambedkar)
अम्बेडकर सर्वधर्म सद्भाव के विचार रखते थे. वे हिन्दू धर्म के खिलाफ न होकर वो हिन्दू धर्म में व्याप्त बुराइयों और कुरीतियों को समाप्त करना चाहते थे.
उनहोंने आजीवन परिवर्तन किया कि धर्म में सुधार हो, लेकिन दकियानूसी सोच के लोगों को ऐसा कभी मंजूर नही था. अतः जीवन के अंतिम पड़ाव में अम्बेडकर ने अपना धर्म परिवर्तन कर बौद्ध धर्म की दीक्षा ले ली.
14 अक्टूबर 1956 के दशहरे के दिन उन्होंने नागपुर में एक बड़े कार्यक्रम में दो लाख लोगों के साथ हिन्दू धर्म से बौद्ध धर्म को अपना लिया. वे एक महान विधिवेता, समाज सुधारक शिक्षाविद और राजनेता थे. उन्होंने आजीवन अछूत वर्ग के हितों की लड़ाई लड़ी.
6 दिसम्बर 1956 को दलितों के भगवान् मसीहा बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर की मृत्यु हो गई. उनके कार्यों के लिए भारत सरकार ने 1990 में उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से नवाजा गया.
भीमराव अम्बेडकर पर निबंध Essay On Dr Br Ambedkar In Hindi
ये चंद लाइनें जो भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयीजी की हैं, जो भीमराव अम्बेडकर के सम्पूर्ण जीवन और विचारों का सार बया कर जाती हैं. कुछ लोग पहली बार में उखड़ जाते हैं. आपत्ति जता सकते हैं.
विवाद खड़ा करने का प्रयास भी कर सकते हैं. परन्तु ठहरिये भीमराव अम्बेडकर का जीवन सरस सपाट और समतल नही हैं. यह बार-बार अपमान की चिंगारियों से तपता हैं, और जगह-जगह सम्मान के छिटो से शांत होता ऐसा व्यक्तित्व हैं,
जिसकी द्रढ़ता विपरीत अनुभवों को सहते-समझते हुए कदम-दर-कदम बढ़ जाती हैं. भीमराव अम्बेडकर को यह मजबूती तत्कालीन परिस्थतियो ने दी हैं. खुद उस समाज ने दी हैं, जिसका हिस्सा थे. बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर.
एक बिंदु, परिपूर्ण सिन्धु,
हैं ये मेरा हिन्दू समाज |
मै तो समष्टि के लिए व्यष्टि का,
करता सकता बलिदान अभय ||
इस द्रढ़ता का विलक्षण पक्ष यह हैं कि भीमराव अम्बेडकर चोट खाते हैं और हर चोट के साथ सामाजिक मजबूती के काम में अधिक जोश-खरोश से जुट जाते हैं. समाज की व्यवस्थागत गलन और गंदगी पर बडबडाते हैं.
लेकिन जहाँ राष्ट्र और समाज की अखंडता पर कोई हमला होता हैं, डॉक्टर अम्बेडकर बाबासाहेब बन जाते हैं. इस समाज के अनुभवी बुजुर्ग की तरह व्यवहार करते हैं. एकरस समाज और मजबूत राष्ट्र के प्रबल पक्षधर हो जाते हैं, उनका कवच बनकर खड़ा हो जाते हैं.
बालक भीम का भीमराव अम्बेडकर होने से बाबासाहेब रूपी राष्ट्र रक्षक कवच में ढालना ऐसी परिघटना हैं, जो सबके जीवन में नही घटती हैं. यदि घटती हैं तो उस यन्त्रणा को झेलना सबके बस की बात नही हैं.
इस महामानव के जीवन की छोटी,छोटी घटनाएँ को तत्कालीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में खुद को बाबासाहेब की नजर से देखना जरुरी हैं.
डा भीमराव अम्बेडकर का जीवन परिचय (Introduction of Dr. Bhimrao Ambedkar)
छोटे से बच्चों का अन्य बच्चों के साथ खेलने के लिए मचलना और विवशता से भरी माँ द्वारा उसे यह कहकर उठा लेना कि सूबेदार मेजर का बेटा होने के साथ तू म्हार भी हैं, बालमन पर कैसी चोट लगी होगी.
बन्धनों में जकड़े बचपन की इस छटपटाहट और आसुओं में डूबे इस सबक को बच्चे की नजर से समझना होगा. बच्चे तो बच्चे हैं. पालकों में फर्क होता हैं क्या ? यह जीवन का पहला झटका, पहला सवाल हैं,
जो भीमराव अम्बेडकर के मन में उथल-पुथल मचाता हैं.और उसे इस नन्ही उम्र में प्रश्नों की बजाय उत्तर खोजने की तरफ मोड़ देता हैं.
अन्य छात्रो-शिक्षकों के जूतों के पास बैठकर पढने की शर्त पर विद्यालय में दाखिला मिलना,पिता अपमान और ग्लानी से भरे हैं, माँ की आँखों में आसूं हैं. किन्तु छ वर्ष का बच्चा कह्ता हैं.
माँ मेरा दाखिला करा दो, मै जूतों के पास बैठकर पढ़ लुगा. बच्चों में फर्क देखने वाले तथाकथित बड़े लोगों के समाज को भीमराव अम्बेडकर का यह पहला उत्तर हैं.
माँ भीमाबाई स्थति को समझती हैं और उसकी आखे अपने नन्हे बेटे की असीम सम्भावनाओं को पहचानती भी हैं. वह कहती हैं. बेटा तुम्हे समाज में बहुत अपमान झेलना पड़ेगा. बड़ी घ्रणा झेलनी पड़ेगी.
इस सबकी परवाह ना करना. तुम्हे पढना हैं, बिना पढ़े कोई आदमी बड़ा नही बन सकता. जब तुम बड़े आदमी बन जाओगे तो समाज इस गंदी रीत को बदल डालना ,यही मेरी इच्छा हैं.
माँ का सपना भीमराव अम्बेडकर के मन का संकल्प बनता हैं. घर से अपनी अलग टाट-पट्टी ले जाना, जूतों के बिच दहलीज पर बैठना. आधी छुट्टी में दीवार की ओर मुह करके पेट भरना..
उलह्नो को पीते, विषमताओ में जीते हुए अपने लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित किये भीमराव अम्बेडकर समाज को दूसरा उत्तर हैं- परिस्थति से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं. परिणाम
भीमराव अम्बेडकर की शिक्षा & समाज को संदेश (Education and thought of Bhimrao Ambedkar)
जिस माँ की अपने भीम को पढ़ाने और बड़ा आदमी बनाने का सपना था. उस माँ को इस कारण रोग से प्राण छोड़ते देखना कि तथाकथित के घर श्रेष्ट वेद्ध्य आने को तैयार नही, दिल बैठने लगता हैं. आँसू सुख जाते हैं. भूख मर जाती हैं,
बच्चे भीमराव अम्बेडकर के लिए मानो पूरी दुनियाँ निष्प्राण हो जाती हैं. मगर वह खड़ा होता हैं, यह भीमराव अम्बेडकर की जिजीविषा हैं. उसने मन में संकल्प किया होगा कि निम्न और कुलीन के अन्यायपूर्ण प्रश्नों में झूलते समाज को उत्तर देना ही होगा.
बैठने से काम नही चलेगा. माँ जिस रोग से गईं उससे बड़ा रोग समाज को लगा हैं. मै समाज के रोग का इलाज करुगा, भीमराव अम्बेडकर का यह मूक प्रण सामाजिक निष्ठुरताओ को तीसरा उत्तर हैं.
भीमराव अम्बेडकर बड़े हैं,तो बाधाएं पार करने के कारण. बाबासाहेब का व्यक्तित्व विराट हैं तो इस कारण कि कदम-कदम पर अपमान का विष पीने के बाद भी मन में घर्णा नही उपजी. ऐसा नही कि भीमराव अम्बेडकर को क्रोध नही आता.
वे परिस्थतियो पर झुझलाते हैं, मुट्ठिया भिचते हैं, अकेले में रोते हैं, जाति की छोटी-बड़ी जंजीरों को तोड़ना चाहते थे. जो गलत करता उसे खुलकर फटकारते भी थे. लेकिन इन सभी मानवीय गुणों के साथ वे विलक्ष्ण हैं,
तो इसलिए कि वे कभी भी अपनी सदाशयता छोड़ते नही, शब्द कैसे भी हो, उनका आशय सदा अच्छा बना रहता हैं. जिन्होंने अच्छा किया भीमराव अम्बेडकर उनकी अच्छाई नही भूलते थे.
रामजी सकपाल के पुत्र का नाम हैं भीमराव अम्बेडकर, उपनाम सकपाल . किन्तु प्राथमिक शाला के जिन ब्रह्मण्य मुख्य अध्यापक ने भीम के लिए सबसे पहले शिक्षा मन्दिर के दरवाजे खोले,
इस छात्र की अनुपम मेघा को पहचाना, प्यार से अपना उपनाम दिया, बाबासाहेब ने उस ब्राह्मण उपनाम अंबेडकर को अंत तक अपने ह्रदय से लगाए रखा.
dr ambedkar history ( बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर का इतिहास)
बड़ोदा नरेश महाराज गायकवाड का पूरा सहयोग इस मेधावी छात्र को मिला. उच्च शिक्षा के लिए भीमराव अम्बेडकर को छात्रवृति भी मिली, रियासत को सेवा देते हुए लेफ्टिनेंट का पद प्राप्त हुआ.
अगर जब मृत्यु शैया पर पड़े पिता की सेवा के लिए छुट्टी न देने वाले अधिकारी से कड़वा व्यवहार मिलता हैं तो भीमराव अम्बेडकर महाराज से गुहार नही लगाते हैं. सम्बन्धो का लाभ नही उठाते हैं, कोई कटुता नही पालते.
वे पिता की सेवा के लिए रियासत की रौबदारी नौकरी सहज ही छोड़ देते हैं. मान-अपमान की लड़ाई की बजाय वे अनुशासन और भारतीय संस्कारो की लीक पकड़ते हैं.
बाद में महाराज गायकवाड से मुलाक़ात होती हैं परन्तु दोनों ओर से वही सजगता, वही सहयोग और सम्मान मिलता हैं. विषम परिस्थितियों से जूझने के बाद भी चीजों को बिगड़ने ना देना.
यह भीमराव अम्बेडकर की विशेषता हैं. सोचिए जो लोग बराबर बाबासाहेब के वर्ग हितेषी,सवर्ण शत्रु और विरोधी व्यक्तित्व के चित्र खीचते हैं, उनका चित्र कितना अधुरा हैं.
कुछ लोग भीमराव अम्बेडकर को सिर्फ तत्कालीन तथाकथित वर्ग का क्रन्तिकारी नेता सिद्ध करने की कोशिश करते हैं. यह बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर की विराट सर्व समावेशी द्रष्टि कोसंकीर्ण दायरे में बाँधने का असफल प्रयास हैं.
यह उस व्यक्ति के साथ सरासर अन्याय हैं, जिन्होंने सामाजिक विषमताओ के दंश झेलने के बावजूद इस समाज की सामूहिक शक्ति को पहचाना और राष्ट्रहित में सबसे एक रहने का आवहान किया.
सबसे पहले देश भीमराव अम्बेडकर की यही सोच थी. यहाँ जाति, वर्ग, धर्म औ पंथो के विभाजन की नही एकात्म की कल्पना हैं. देश की एकता और स्वतंत्रता के लिए छोटी-बड़ी जातियों में बटे सभी को एकजुट होना चाहिये.
भीमराव अम्बेडकर की जीवनी (Biography of Bhimrao Ambedkar)
मजहब पन्थ जाति किसी देश से बड़े नही हो सकते. बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर का स्पष्ट मत था. यह विचार बाबा साहेब ने वर्ष 1949 के अंत में एक भाषण में सामने रखा.
इस भाषण का शीर्षक था- देश को समुदाय से उपर रखना चाहिए’ सामाजिक कटुता बाटती हैं और नुकसान पुरे देश को, पुरे समाज को होता हैं. यह बात अंबेडकर ने अपमान के घूट पीने के बाद कैसे मन में बैठाई होगी! क्या यह आसान था.
1917 में कोलम्बिया विश्विद्यालय से पढ़कर लौटे भीमराव अम्बेडकर को महाराज गायकवाड़ सैन्य सचिव का उचा ओहदा देते लेकिन जातिगत श्रेष्टता के झूठे बन्धनों को ढोते उनके अमलदारो में से कोई बाबासाहेब को लेने रेलवे स्टेशन नही पहुचता.
उच्च जाति का चपरासी, सैन्य सचिव को फाइलें पकड़ता नही, दूर से पटकता हैं. इस अधिकारी के पानी मागने पर मातहत साफ़-साफ़ मना कर देते हैं.
कोई घर देने को तैयार नही, पहचान छुपाकर कमरा ले लिया तो सामान सडक पर पटक दिया जाता हैं. दिल में दर्द उमड़ता हैं, आँखों में आसू आते हैं. किन्तु भीमराव अम्बेडकर बड़पन्न कि वे ऐसी तुच्छाओ को अपनी क्षमा की चादर से ढक देते हैं.
यही भीमराव अम्बेडकर 1918 में बम्बई के सीडनहम कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक में राजनीती और अर्थशास्त्र के शिक्षक होकर आते हैं तो एक रोज प्यास से गला सूखने पर घड़ा छूते भर हैं कि बवाल हो जाता हैं.
मेधा, शिक्षा, डिग्री सब व्यर्थ! क्या सनातनी कस्बे, क्या फ़ारसी धर्मशाला, क्या इसाई कॉलेज? सब जगह सोच का वही छोटापन, वही विष! यह महामानव हर कदम पर हलाहल पीता हैं मगर अपने भीतर किसी के लिए जहर नही पालता हैं.
उपर्युक्त घटनाओं के संग- संग कालान्तर में भीमराव अम्बेडकर की प्रतिक्रियाओं के रूप में सामने आता हैं.उनका व्यक्तित्व स्वत अपना स्थान बनाता हैं.
बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर (Books of Baba Saheb Bhimrao Ambedkar)
किन्तु इन सबके साथ 25 नवम्बर 1949 को भीमराव अम्बेडकर का एक भाषण तुलनात्मक सन्दर्भ के तौर पर जरुर पढ़ा जाना चाहिए. यह भाषण बाबासाहेब की सांस्कृतिक चेतना का दस्तावेज तो हैं ही, यह भी दिखाता हैं की तुच्छ व्यवहार ने बाबासाहेब को आहत जरुर किया था.
परन्तु उनकी समझ को कुंठित करने में असफल रहा था. इस रोज सविधान सभा के जरिए भीमराव अम्बेडकर ने देश को झकझोरा था. वह आवहान, वह चेतावनी आज भी पूरी तरह प्रांसगिक हैं.
इस भाषण में देश के सांस्कृतिक आतीत और इस पर आक्रमणों का पूरा लेखा उन्होंने देश के सामने रखा था. अंबेडकर ने याद दिलाया कि जब मुहमद बिन कासिम भारत पर आक्रमण करने के लिए उत्तर-पश्चिम की सीमा पर आया.
तब राजा दाहिर ने मुकाबला करने का निर्णय किया, कितु दुर्भाग्य से राजा दाहिर पराजित हुए और मुहमद बिन कासिम जीत गया. वीर होने के बावजूद दाहिरसेन की हार हुई क्युकि उनका सेनापति देशद्रोही निकला.
उस महामानव के जीवन की घटनाओं, घटनाओं की प्रतिक्रिया और इस सबसे पककर बात यह निकली सोच के सामने रखती ये कुछ झलकियाँ भर हैं. वास्तव में भीमराव अम्बेडकर का सारा जीवन समाज के कटुतम सवालों का सरल और सटीक उत्तर हैं.
मनोवैज्ञानिक तौर पर ‘जैसे को तैसा’ यह सहज मानवीय व्यवहार हैं. लेकिन भीमराव अम्बेडकर ने कैसा हैं, के सामने रखते हुए आम वैज्ञानिक धारणाएं झुटला दी. वे जुझारू थे. दबते नही थे.
इसलिए इन्होने ‘अखिल भारतीय शेड्यूल कास्ट फेडरेशन’ बनाई थी. यह राजनितिक फैसला था. उनका साफ मानना था कि अस्प्रश्यता और अन्याय के विरुद्ध लड़ना हैं.
तो यह घर के भीतर की बात हैं और यह लड़ाई बाकी हिन्दू समाज से कटे रहकर नही लड़ी जा सकती और न ही दलितों को हास्ये पर पड़े रहने देना इसका इलाज हैं.
Autobiography Of Ambedkar In Hindi
प्रसिद्ध कामगार मैदान सभा में उन्होंने कहा था कि इच्छा से हो या अनिच्छा से, दलित हिन्दू समाज का ही अंग हैं. हमने महाड और नासिक में जो सत्याग्रह संघर्ष किया हैं, वह हिन्दुओ पर इस बात का दवाब डालने के लिए ही था. कि वे दलितों को बराबरी के स्तर पर स्वीकार करे.
उनकी व्यस्थावादी सोच में अस्पष्टता नही थी. न्याय व्यवस्था के बारे में राष्ट्रीय स्तर पर मन्तैक्य स्थापित करना उनकी चाह थी. भले ही उन्होंने स्वय कुछ भी झेला हो लेकिन इसके बाद भी समाज से अन्याय को दूर करने के लिए सबको सहमती तक पहुचाने का प्रयास करते रहना, निरंतर जूझना, यही उनके लिए ध्येय था.
यकीनन भीमराव अम्बेडकर बहुत बड़े हैं. लेकिन वे बड़े हैं बड़ी बाधाएँ पार करने के कारण, बाबा साहेब का व्यक्तित्व विराट हैं तो इस कारण कि कदम-कदम पर विष पीने के बाद भी मन में घ्राण नही उपजती.
कुछ लोग बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर का जीवन कुछ लोगों की चिंता और अन्य से नफरत का पुलिंदा बनाकर पेश करते हैं. ऐसे प्रयास अपने आप में घ्रणित हैं.
क्युकि यह एक बड़े आदमी को बौना साबित करने की कोशिश हैं. चिंदियो को तस्वीर की तरह दिखाना उस विराट चित्र का अपमान हैं. भीमराव अम्बेडकर इस सम्पूर्ण राष्ट्र इसकी चुनोतियो और अपने सहोदर समाज की परिस्थतियो का स्पंदन हैं.
समझने वाली बात यह हैं. कि भीमराव अम्बेडकर के जीवन में सामाजिक उठापठक और उलझाव तो खूब हैं. लेकिन दुराव नही हैं. यदि भीमराव अम्बेडकर तत्कालीन भारतीय समाज की बुराइयों को काटने वाली तलवार की तरह तीखे हैं तो इस समाज की साझा शक्ति को बचाने वाली ढाल हैं.
डॉ भीमराव अम्बेडकर पर निबंध (Essay on Bhimrao Ambedkar)
भारतीय संस्कृती में तप बड़ी चीज हैं. व्यक्ति को शक्ति और तेज देने वाली तपस्या की राह कभी आसान नही होती हैं. भीमराव अम्बेडकर का जीवन सरलताओ का सुगम पथ नही हैं.
वही विपरीतताओ के कांटो और अपमान के अंगारों पर चलकर उन्हें कुचलकर तय की गईं यह एक दुर्गम यात्रा हैं. भौगोलिक और अखंडता को समाज का अभिन्न अंग और समाज हित को सर्वोपरी मानते हुए.
खुद को गला देना कम बात नही हैं. यह तपस्या हैं, व्यष्टि यानि व्यक्ति समष्टि यानि सम्पूर्ण समाज के लिए कैसे अपना जीवन होम कर सकता हैं. इस बात की झांकी हैं भीमराव अम्बेडकर का तपमय जीवन.