शाकाहारी पर कविता | Poem on Vegetarian in Hindi : दुनिया में करीब आठ अरब लोग है जिनका जीवन, रहन सहन और खान पान में बड़ा फर्क देखा जाता हैं. खाने के विषय में हम मोटे रूप में दो भागों में बाँट सकते है एक वेजिटेरियन और दूसरे नॉन वेजिटेरियन अर्थात शाकाहार एवं मांसाहार.
दुनिया की एक बड़ी आबादी धरती से उपजे अन्न, सब्जी और फल से अपना गुजारा करती है इनमें हम अधिकतर भारतीय शामिल होते है. वहीं कई सारे देशों में छोटे छोटे जीवों से लेकर पशुओं के मांस, मछली को खाकर अपना पेट भरते है वे माँसाहारी है. जाहिर है जीवों की प्रत्यक्ष हत्या करके उनको अपना भोजन बनाना नैतिकता के किसी पैमाने पर उचित नहीं समझा जाएगा.
शाकाहारी पर कविता | Poem on Vegetarian in Hindi
हर इंसान को अपनी पसंद का खाना खाने की स्वतंत्रता है मगर विवेकशील प्राणी होने के नाते हम इंसानों को एक बात पर कम से कम विचार करना चाहिए कि अगर बिना किसी जीव की हत्या किए हमारे लिए भोजन के विकल्प उपलब्ध है तो हमें उनकी तरफ ही जाना चाहिए.
मानव की तरह अन्य जीवों को भी इस धरा पर उतना ही जीने का अधिकार मिलना चाहिए. शाकाहार अपनाने के कई सारे फायदे भी है साथ ही प्रकृति का संरक्षण भी. हमें अपने पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए शाकाहारी बनने का प्रयत्न करना चाहिए.
शाकाहारी जीवन पर कविता
गर्वं था भारत-भूमि को के महावींर की माता हू।
राम-कृष्ण और नानक़ ज़ैसे वीरों की यशगाथा हू॥
कंद-मूल ख़ाने वालो से मांसाहारी डरतें थे।
‘पोरस’ ज़ैसे शूर-वीर को नमन ‘सिकंदर’ क़रते थे॥
चौदह वर्षो तक खूख़ारी वन मे ज़िसका धाम था।
मन-मन्दिर मे बसनें वाला शाकाहारी राम था॥
चाहतें तो खा सक़ते थे वो मांस पशु के ढेरों मे।
लेक़िन उनकों प्यार मिला ‘शब़री’ के झूठे बेरों मे॥
माख़न चोर मुरारी थें।
शत्रु को चिगारी थे॥
चक्र सुदर्शंन धारी थे।
गोवर्धंन पर भरी थे॥
मुरली से वंश करनें वाले ‘गिरधर’ शाकाहारी थे॥
करतें हो तुम बाते कैसे ‘मस्जि़द-मन्दिर-राम’ की?
खूनी बनक़र लाज़ लूटली ‘पैगम्बर’ पैंगाम की॥
पर-सेवा पर-प्रेम का परचम चोटीं पर फ़हराया था।
निर्धंन की क़ुटिया में ज़ाकर जिसनें मान बढाया था॥
सपने जिसनें देख़े थे मानवता के विस्तार कें।
नानक जैसे महा-संत थे वाचक़ शाकाहार कें॥
उठों ज़रा तुम पढ कर देख़ो गौरव-मई इतिहास को।
आदम से गांधी तक फ़ैले इस नीलें आकाश को॥
प्रेम-त्याग और दया-भाव की फसल जहाँ पर उगती है।
सोने की चिड़िया न लहूं में सना बाज़रा चुगती हैं॥
दया की आँखें ख़ोल देख लो पशु के क़रुण क्रदन को।
इंसानो का ज़िस्म बना है शाकाहारी भोज़न को॥
अंग लाश के ख़ा जाये क्या फिर भी वो इंसान हैं?
पेट तुम्हारा मुर्दांघर है या कोई क़ब्रिस्तान है?
आँख़े कितना रोती है जब उगली अपनी ज़लती है।
सोचों उस तडपन की हद ज़ब ज़िस्म पे आरी चलती हैं॥
बेब़सता तुम पशु की देख़ो बचनें के आसार नहीं।
जीतें जी तन कटा जाये, उस पीड़ा का पार नहीं॥
ख़ाने से पहले बिरयानी चीख़ जीव की सुन लेतें।
करुणा के वंश होक़र तुम भी गिरि-गिरनार को सुन लेतें॥
-सौरभ जैन सुमन